स्कंद पुराण में है भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा का वर्णन
आषाढ़ शुक्ल द्वितीया रथयात्रा उत्सव का दिन है। इस दिन भारत के विभिन्न अंचलों में भगवान की शोभायात्रा निकाली जाती है। इसमें उड़ीसा राज्य में पुरी की जगन्नाथ रथयात्रा सर्वाधिक प्रसिद्ध है। सामान्यत: भगवान विष्णु के साथ मां लक्ष्मी की भी आराधना होती है तथा मुरली मनोहर श्रीकृष्ण के साथ राधा की भी पूजा-अर्चना की जाती है।
इस संबंध में स्कंद पुराण के उत्कल खंड में एक आख्यान के अनुसार- भगवान गोपीनाथ श्रीकृष्ण द्वारका में अपने महल में शयन कर रहे थे। सोते समय उनके मुंह से राधा नाम निकल गया। उनकी रानियों ने राधा के बारे में जानना चाहा और इस हेतु रोहिणी के पास गर्इं। रोहिणी बंद कमरे में रानियों को कृष्ण व राधा सहित गोपियों की ब्रजलीला की कथाएं सुनाना प्रारंभ कीं। कथा के समय श्रीकृष्ण व बलराम अंदर न आ सकें, इसके लिए सुभद्रा को द्वार पर बैठा दिया था। कुछ समय पश्चात भगवान श्रीकृष्ण व बलराम अंत:पुर की ओर आए किन्तु सुभद्रा ने उन्हें अंदर जाने रोक दिया। रोहिणी रानियों को जो कथाएं सुना रहीं थीं, वह भगवान श्रीकृष्ण के कानों में पड़ने लगीं। अब तीनों की उन कथाओं को सुनने लगे और अनिर्वचनीय भाव अवस्था को प्राप्त होने लगे। तीनों प्रतिमा की भांति स्थावर व निश्चल हो गए। इसी समय नारदजी आए और भगवान की दशा देखकर आश्चर्यचकित रह गए। नारदजी ने भगवान से प्रार्थना की कि वे सदा इस रूप में पृथ्वी में निवास करें। भगवान ने नारदजी की प्रार्थना स्वीकार कर लिया और पूर्व काल में राजा इन्द्रद्युम और रानी विमला को दिए गए वरदानों को सम्मिलित करते हुए नीलांचल क्षेत्रपुरी में अवतीर्ण होने का आश्वासन दिया। कलियुग का जब आगमन हुआ तो मालव प्रदेश के राजा इन्द्रद्युम को नीलांचल पर्वत पर स्थित देवपूजित नीलमाधव के दर्शन की उत्कंठा हुई किन्तु जब तक राजा पहुंचता तब तक देवता नीलमाधव के विग्रह को लेकर देवलोक चले गए। इससे राजा बहुत उदास हुआ। राजा की उदासी देखकर भगवान ने आकाशवाणी की कि- भगवान जगन्नाथ दारूरूप में दर्शन देंगे। इन्द्रद्युम को कुछ समय पश्चात समुद्र के किनारे टहलते हुए लकड़ी की एक शिला तैरती हुई मिली, इन्द्रद्युम को भगवान की आकाशवाणी याद आई और उस लकड़ी की शिला से भगवान जगन्नाथ का विग्रह बनवाने का निश्चय किया। इतने में विश्वकर्माजी बढ़ई के वेश में इन्द्रद्युम के पास आए और भगवान का विग्रह बनाने की प्रार्थना की। इन्द्रद्युम इस विचित्र संयोग से उत्साहित हुआ और उसने इसी समय विग्रह निर्माण का आदेश दे दिया। बढ़ई वेशधारी विश्वकर्मा जी विग्रह का निर्माण इस शर्त पर करने के लिए राजी हुए कि इसके निर्माण के दौरान कोई भी व्यक्ति उनके पास नहीं आएगा। यदि कोई व्यक्ति उनके पास आया तो वे निर्माण को अधूरा छोड़कर चले जाएंगे। राजा इन्द्रद्युम ने यह बात स्वीकार कर ली। गुण्डिया नामक स्थान पर एक कक्ष में निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ। कुछ दिन व्यतीत होने पर राजा इन्द्रद्युम को विग्रह निर्माण में रत वृद्ध बढ़ई के भूख-प्यास की चिंता हुई। इस उद्देश्य से वह बढ़ई के पास गया और शर्त के मुताबिक विश्वकर्माजी निर्माण कार्य छोड़कर अंतर्ध्यान हो गए। इस प्रकार प्रतिमा का कार्य अधूरा रह गया। राजा को अधूरे निर्माण से बड़ी निराशा हुई, तभी एक और आकाशवाणी हुई- हम इसी रूप में रहना चाहते हैं, अत: तुम तीनों प्रतिमाओं को विधिवत अलंकृत करवाकर प्रतिष्ठित करवा दो। राजा ने भगवान जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा की उक्त तीनों अधूरी प्रतिमाओं को एक विशाल मंदिर बनवाकर प्रतिष्ठित करवा दिया। इस प्रकार पुरी के जगन्नाथ मंदिर और विग्रह की स्थापना हुई। भगवान जगन्नाथ ने पुरी में नवीन मंदिर में अपनी स्थापना के समय राजा इन्द्रद्युम को कहा था कि उन्हें अपना जन्म स्थान प्रिय है। अत: वे वर्ष में एक बार अवश्य वहां पधारेंगे। भगवान के इस आदेश को क्रियान्वित करने के लिए इन्द्रद्युम के समय से ही आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को रथयात्रा प्रारंभ हुई। जो आज तक अनवरत रूप से जारी है।
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