Wednesday, June 28, 2017

महाप्रसाद



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Mahaprasad 

is of two types. 

One is Sankudi mahaprasad and the other is Sukhila mahaprasad.

  • Sankudi mahaprasad includes items like rice, ghee rice, mixed rice, cumin seed and asaphoetida-ginger rice mixed with salt, and dishes like sweet dal, plain dal mixed with vegetables, mixed curries of different types, Saaga Bhaja', Khatta, porridge etc. All these are offered to the Lord in ritualistic ways. It is said that every day 56 types of Prasad are offered to the Lord during the time of worship and all of these are prepared in the kitchens of the temple and sold to the devotees in Ananda Bazaar by the Suaras who are the makers of the Prasad.
  • Sukhila mahaprasad consists of dry sweetmeats.



श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद माना जाता है, जबकि अन्य तीर्थों के प्रसाद को सामान्यतः प्रसाद ही कहा जाता है। श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद का स्वरूप महाप्रभु बल्लभाचार्य जी के द्वारा मिला। कहते हैं कि महाप्रभु बल्लभाचार्य की निष्ठा की परीक्षा लेने के लिए उनके एकादशी व्रत के दिन पुरी पहुँचने पर मन्दिर में ही किसी ने प्रसाद दे दिया। महाप्रभु ने प्रसाद हाथ में लेकर स्तवन करते हुए दिन के बाद रात्रि भी बिता दी। अगले दिन द्वादशी को स्तवन की समाप्ति पर उस प्रसाद को ग्रहण किया और उस प्रसाद को महाप्रसाद का गौरव प्राप्त हुआ। नारियल, लाई, गजामूंग और मालपुआ का प्रसाद विशेष रूप से इस दिन मिलता है।

Sunday, June 18, 2017

Nandan Ka Abhinandan Kariye





नंदन का अभिनन्दन करिए, चित संचित कर बंदन करिए
भाद्र अष्टमी रैन  अन्ध्यारी, वसुदेव देवकी दुलारे 
कृष्ण रूप विष्णु अवतारी, श्री चरणन में वंदन करिए 
नंदन का अभिनन्दन करिए

भगवान श्री जगन्नाथ जी के निकट सामिप्य एवं सानिध्य का जो अनुपन अवसर हमें प्राप्त हुआ है 
आओं हम सभी इस का पुन्य लाभ लें || 

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Friday, June 16, 2017

Lord Jagannath's Rath Yatra

स्कंद पुराण में है भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा का वर्णन


   आषाढ़ शुक्ल द्वितीया रथयात्रा उत्सव का दिन है। इस दिन भारत के विभिन्न अंचलों में भगवान की शोभायात्रा निकाली जाती है। इसमें उड़ीसा राज्य में पुरी की जगन्नाथ रथयात्रा सर्वाधिक प्रसिद्ध है। सामान्यत: भगवान विष्णु के साथ मां लक्ष्मी की भी आराधना होती है तथा मुरली मनोहर श्रीकृष्ण के साथ राधा की भी पूजा-अर्चना की जाती है।

इस संबंध में स्कंद पुराण के उत्कल खंड में एक आख्यान के अनुसार- भगवान गोपीनाथ श्रीकृष्ण द्वारका में अपने महल में शयन कर रहे थे। सोते समय उनके मुंह से राधा नाम निकल गया। उनकी रानियों ने राधा के बारे में जानना चाहा और इस हेतु रोहिणी के पास गर्इं। रोहिणी बंद कमरे में रानियों को कृष्ण व राधा सहित गोपियों की ब्रजलीला की कथाएं सुनाना प्रारंभ कीं। कथा के समय श्रीकृष्ण व बलराम अंदर न आ सकें, इसके लिए सुभद्रा को द्वार पर बैठा दिया था। कुछ समय पश्चात भगवान श्रीकृष्ण व बलराम अंत:पुर की ओर आए किन्तु सुभद्रा ने उन्हें अंदर जाने रोक दिया। रोहिणी रानियों को जो कथाएं सुना रहीं थीं, वह भगवान श्रीकृष्ण के कानों में पड़ने लगीं। अब तीनों की उन कथाओं को सुनने लगे और अनिर्वचनीय भाव अवस्था को प्राप्त होने लगे। तीनों प्रतिमा की भांति स्थावर व निश्चल हो गए। इसी समय नारदजी आए और भगवान की दशा देखकर आश्चर्यचकित रह गए। नारदजी ने भगवान से प्रार्थना की कि वे सदा इस रूप में पृथ्वी में निवास करें। भगवान ने नारदजी की प्रार्थना स्वीकार कर लिया और पूर्व काल में राजा इन्द्रद्युम और रानी विमला को दिए गए वरदानों को सम्मिलित करते हुए नीलांचल क्षेत्रपुरी में अवतीर्ण होने का आश्वासन दिया। कलियुग का जब आगमन हुआ तो मालव प्रदेश के राजा इन्द्रद्युम को नीलांचल पर्वत पर स्थित देवपूजित नीलमाधव के दर्शन की उत्कंठा हुई किन्तु जब तक राजा पहुंचता तब तक देवता नीलमाधव के विग्रह को लेकर देवलोक चले गए। इससे राजा बहुत उदास हुआ। राजा की उदासी देखकर भगवान ने आकाशवाणी की कि- भगवान जगन्नाथ दारूरूप में दर्शन देंगे। इन्द्रद्युम को कुछ समय पश्चात समुद्र के किनारे टहलते हुए लकड़ी की एक शिला तैरती हुई मिली, इन्द्रद्युम को भगवान की आकाशवाणी याद आई और उस लकड़ी की शिला से भगवान जगन्नाथ का विग्रह बनवाने का निश्चय किया। इतने में विश्वकर्माजी बढ़ई के वेश में इन्द्रद्युम के पास आए और भगवान का विग्रह बनाने की प्रार्थना की। इन्द्रद्युम इस विचित्र संयोग से उत्साहित हुआ और उसने इसी समय विग्रह निर्माण का आदेश दे दिया। बढ़ई वेशधारी विश्वकर्मा जी विग्रह का निर्माण इस शर्त पर करने के लिए राजी हुए कि इसके निर्माण के दौरान कोई भी व्यक्ति उनके पास नहीं आएगा। यदि कोई व्यक्ति उनके पास आया तो वे निर्माण को अधूरा छोड़कर चले जाएंगे। राजा इन्द्रद्युम ने यह बात स्वीकार कर ली। गुण्डिया नामक स्थान पर एक कक्ष में निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ। कुछ दिन व्यतीत होने पर राजा इन्द्रद्युम को विग्रह निर्माण में रत वृद्ध बढ़ई के भूख-प्यास की चिंता हुई। इस उद्देश्य से वह बढ़ई के पास गया और शर्त के मुताबिक विश्वकर्माजी निर्माण कार्य छोड़कर अंतर्ध्यान हो गए। इस प्रकार प्रतिमा का कार्य अधूरा रह गया। राजा को अधूरे निर्माण से बड़ी निराशा हुई, तभी एक और आकाशवाणी हुई- हम इसी रूप में रहना चाहते हैं, अत: तुम तीनों प्रतिमाओं को विधिवत अलंकृत करवाकर प्रतिष्ठित करवा दो। राजा ने भगवान जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा की उक्त तीनों अधूरी प्रतिमाओं को एक विशाल मंदिर बनवाकर प्रतिष्ठित करवा दिया। इस प्रकार पुरी के जगन्नाथ मंदिर और विग्रह की स्थापना हुई। भगवान जगन्नाथ ने पुरी में नवीन मंदिर में अपनी स्थापना के समय राजा इन्द्रद्युम को कहा था कि उन्हें अपना जन्म स्थान प्रिय है। अत: वे वर्ष में एक बार अवश्य वहां पधारेंगे। भगवान के इस आदेश को क्रियान्वित करने के लिए इन्द्रद्युम के समय से ही आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को रथयात्रा प्रारंभ हुई। जो आज तक अनवरत रूप से जारी है।

साभार :-

Monday, June 12, 2017

समन्वय के देवता श्रीजगन्नाथ


* डॉ. हरेकृष्ण मेहेर 
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'शुभं सुभद्रा-बलभद्र-सङ्गतं
नमामि नाथं जगतां वरेण्यम् ।
ओंकार-रूपं भुवि दारु-दैवतं
वेदान्त-वेद्यं महतां शरण्यम् ॥'


श्रीजगन्नाथ ओड़िशा के परम आराध्य देवता के रूप में सर्वत्र संपूजित हैं । 'पुरुषोत्तम' - नाम से उनकी विशेष प्रसिद्धि रही है । उनका पुण्य पुरी धाम 'पुरुषोत्तम क्षेत्र' नाम से सुपरिचित है । वे हैं आर्त्तत्राण, दीनबन्धु, दयासिन्धु, पतित-पावन, मान-उद्धारण, शरण-रक्षण, भावग्राही, प्रेम-भक्ति-प्रीत महामहिम देवेश्वर । दारुब्रह्म के रूप में वे नीलकन्दर में विराजित हैं । स्कन्द पुराण, ब्रह्म पुराण, नीलाद्रि-महोदय, पुरुषोत्तम-माहात्म्य आदि ग्रन्थों में पुरुषोत्तम क्षेत्र और जगन्नाथ महाप्रभु की महिमा विशेषरूप से प्रतिपादित है । राजा इन्द्रद्युम्न द्वारा प्रतिष्ठित शाबर देवता श्रीजगन्नाथ की कीर्त्ति अनन्त है । पहले से ही शाबर संस्कृति में विश्वावसु द्वारा समाराधित नीलमाधव महाप्रभु परवर्त्ती काल में विश्‍वजनीन देवता श्रीजगन्नाथ के रूप में पूजित हो रहे हैं । वे हैं पूर्ण परंब्रह्म सच्चिदानन्द परम-पुरुष । श्रीजगन्नाथ का दारुविग्रह नाना धार्मिक सम्प्रदायों की एकता प्रतिष्ठा करने की दिशा में मुख्य भूमिका निभाता रहा है । ऋग्‌‍वेद के दशम मण्डल में वर्णित है :
“ अदो यद्‍ दारु प्लवते सिन्धोः पारे अपूरुषम् । 
तदारभस्व दुर्हणो तेन गच्छ परस्तरं‍म् ॥" ( १२/१५५/३)


इसका तात्पर्य है : 'ये जो दिव्य अपुरुष दारु (काष्ठ) समुद्र-तट जल में वहता जा रहा है, उसीके आश्रय से तुम परम गति लाभ करो ।' इस ऋग्‍वेदीय मन्त्र में दारुब्रह्म का उल्लेख रहा है । पावन क्षेत्रराज पुरी में विष्णु दारुब्रह्म मूर्त्ति रूप में विराजमान हैं । उनके कमनीय रूप का दर्शन करके प्राणी सारे पापों से मुक्ति प्राप्त होता है, ऐसा धार्मिक विश्वास रहा है । परमेश्‍वर महाप्रभु के कुछ अंगों की अपूर्णता के बारे में उपनिषद्‍ का वाक्य स्मरणीय है :
‘अपाणि-पादो जवनो ग्रहीता 
पश्यतुअचक्षुः स शृणोत्यकर्णः । 
स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति बेत्ता 
तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम् ॥'
(श्‍वेताश्‍वतर उपनिषद्‍ ३/१९)
तात्पर्य यह है कि उन महनीय श्रेष्ठ परमपुरुष के हाथ नहीं हैं, फिर वे भी सभीको धारण करते हैं । उनके पैर नहीं, फिर भी वे चलते हैं । उनके नेत्र नहीं, फिर भी देखते हैं । उनके कान नहीं, फिर भी सुनते हैं । वे सर्वज्ञ हैं, परन्तु उनको जाननेके लिये किसीका सामर्थ्य नहीं ।

निगम-वाक्य के आधार पर भक्तकवि गोस्वामी तुलसीदास ने राम-ब्रह्म के बारे में लिखा है :

"बिनु पद चल‍इ सुन‍इ बिनु काना, 
बिनु कर कर‍इ करम विधि नाना । 
आनन-रहित सकल रस-भोगी,
बिनु वानी बकता बड़ जोगी ।
तन बिनु परस नयन बिनु देखा, 
ग्रह‍इ घ्रान बिनु बास असेखा । 
असि सब भाँति अलौकिक करनी, 
महिमा जासु जाइ नहीं बरनी ॥" (श्रीरामचरित-मानस, बालकाण्ड, ११७/३-४)

वही परंब्रह्म पैरहीन होकर भी चलते हैं, कान बिना भी सुनते हैं, हाथ बिना भी नाना कार्य करते हैं, मुख या जिह्वा बिना भी सभी रसों का आस्वादन करते हैं, वाणी बिना भी कहते हैं, शरीर बिना भी स्पर्श करते हैं, नेत्र बिना भी देखते हैं, नासिका बिना भी सारा गन्ध आघ्राण करते हैं । ऐसे परंब्रह्म की लीला अलौलिक है और महिमा अवर्णनीय । वे इन्दिय-रहित एवं इन्द्रियातीत परम आत्मतत्त्व हैं । वे साकार हैं और निराकार भी । भक्तकवि तुलसीदास ने श्रीराम-रूपी हरि का माहात्म्य बयान करके कहा है :
"वन्देऽहं तमशेष-कारणपरं रामाख्यमीशं हरिम् ।" करुणा-निधान वही पुरुषोत्तम सचराचर विश्व में लीलामय, बहुरूपधारी एवं सर्वव्यापी हैं । भावग्राही श्रीजगन्नाथ महाप्रभु को अपने इष्टदेव श्रीरामचन्द्र के रूप में दर्शन करके भक्तवर तुलसीदास का हृदय भक्ति-पुलकित हो उठा था । उनके मुख से भावभरी वाणी उच्चरित हुई थी : "जो ही राम सो ही जगदीशा ।" जो भक्त जिस रूप में भगवान् की उपासना करता है, वह उसी रूप से भगवान् को दर्शन करता है । वास्तव में सच ही है " जाकी रही भावना जैसीप्रभु-मूरति देखि तिन तैसी ।"

संसार में रहकर मानव अपनी रुचि के अनुसार धार्मिक और सामाजिक आस्था पोषण करता है । प्रभु श्रीजगन्नाथ सर्वधर्म-समन्वय के रूप में प्रतिपादित हैं । अपाणि-पादादि-स्वरूप वर्णित परम ब्रह्म के प्रतीक हैं वे । भक्तों के भगवान् हैं वे विचित्रकर्मा एवं अद्‍भुत-विग्रहधारी । विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों के उपासकगण दुःखहारी उन हरि को भिन्न भिन्न रूप में दर्शन करते हैं । इस विषय पर एक लोकप्रिय श्‍लोक है : 

‘यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो 
बौद्धा बुद्ध इति प्रमाण-पटवः कर्त्तेति नैयायिकाः । 
अर्हन्नित्यथ जैन-शासन-रताः कर्मेति मीमांसकाः 
सोऽयं वो विदधातु वाञ्छित-फलं त्रैलोक्य-नाथो हरिः ॥‘


उक्त प्रचलित श्‍लोक में विभिन्न भारतीय दर्शनों का मूल आत्म-तत्त्व सूचित हुआ है । “ एकं सद्‍ विप्रा बहुधा वदन्ति ” – इस वेद-वाणी की सार्थकता सर्वत्र परिलक्षित होती है । शैवलोग उन परमेश्वर त्रिलोकपति को शिव के रूप में आराधना करते हैं, वेदान्तीगण ब्रह्म के रूप में, बौद्धलोग बुद्ध के रूप में, नैयायिकगण कर्त्ता के रूप में, जैनगण ‘अर्हत्' के रूप में एवं मीमांसक लोग कर्म के रूप में उपासना करते हैं । जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा – इन त्रिमूर्त्ति को भारतीय परम्परा में सत्त्व-रज-तम त्रिगुण का प्रतीक कहा जाता है । बौद्धधर्म और जैनधर्म का 'त्रिरत्‍न' (सम्यक्‌ ‍ ज्ञान, सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् चारित्र) भी इस त्रिमूर्त्ति में सन्निहित है । भक्तप्रवर चैतन्य प्रमुख वैष्णवगण श्रीजगन्नाथ को कृष्ण-रूप मानते हैं । श्रीजगन्नाथ के वैष्णवीय लक्षणो का निदर्शन वर्णित है ‘जगन्नाथाष्टकम्' में । यनुना-तटपर वनविहार करने वाले संगीतमय-वंशीवदन गोपिका-वल्लभ और ब्रह्मादि-देवगण द्वारा पूज्यपाद कृष्णरूपी श्रीजगन्नाथ मेरे नेत्र-पथ में आकर दर्शन दें, भक्त यही कामना करता है । इस पद्य में :
'कदाचित्‌ कालिन्दी-तट-विपिन-सङ्गीतक-वरो 
मुदाभीरी-नारी-वदन-कमलास्वाद-मधुपः । 
रमा-शम्भु-ब्रह्मामरपति-गणेशार्चित-पदो 
जगन्नाथः स्वामी नयन-पथगामी भवतु मे ॥' (श्‍लोक- १)

वाम हस्त में वंशी धारण करते हुए, मस्तक में मयूर-पुच्छ सजाते हुए, सुन्दर वस्त्र-शोभित, नेत्रकोण में साथी की भ्रूभंगी दरशाते करते हुए वृन्दावन-विहारी लीलामय भगवान् कृष्ण-स्वरूप श्रीजगन्नाथ हैं । उनके दर्शनाभिलाषी भक्त की प्रार्थना है :

‘भुजे सव्ये वेणुं शिरसि शिखिपिच्छं कटितटे 
दुकूलं नेत्रान्ते सहचर-कटाक्षं विदधते । 
सदा श्रीमद्‍-वृन्दावन-वसति-लीला-परिचयो 
जगन्नाथः स्वामी नयन-पथगामी भवतु मे ॥‘ (श्‍लोक -२) 

फिर परंब्रह्म-स्वरूप नाग-शयन नीलगिरिवासी नीलपद्म-नयन श्रीजगन्नाथ की कृष्ण-मूर्त्ति और श्रीराधा-प्रीति की वर्णना है इस पद्य में :

परंब्रह्मापीड़ः कुवलय-दलोत्‍फुल्ल-नयनो 
निवासी नीलाद्रौ निहित-चरणोऽनन्त-शिरसि ।
रसानन्दो राधा-सरस-वपुरालिङ्गन-सुखो 
जगन्नाथः स्वामी नयन-पथगामी भवतु मे ॥‘ (श्‍लोक- ६)

दाक्षिणात्य के भक्त गणपति-भाट्ट ने श्रीजगन्नाथ को गजानन-वेश में दर्शन किया था । उनकी स्मृति में ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन स्नानयात्रा में महाप्रभु का गजानन वेश अनुष्ठित होता है । शाक्त धर्म के उपासकगण प्रभु जगन्नाथ को भैरव के रूप में पूजा करते हैं । ओड़िआ साहित्य के सुप्रसिद्ध कवि उपेन्द्र भञ्ज की वर्णना में प्रभु जगन्नाथ एवं बलभद्र हैं हस्तीयुगल । जगन्नाथ हैं दक्षिण दिशा के हस्ती कृष्णवर्ण ‘वामन’ और उनके अग्रज बलभद्र हैं पूर्वदिशा के हस्ती धवल-वर्ण ‘ऐरावत’ । जनसाधारणों में प्रभु जगन्नाथ ‘कालिआ हाती’ के रूप में सुपरिचित हैं । इसीसे गजानन-वेश का माहात्म्य स्पष्ट प्रदिपादित होता है । जगन्नाथ-तत्त्व में विविध नामों की एकात्मता प्रतिष्ठित हुई है । कवि उपेन्द्र भञ्ज के मत में ‘जगन्नाथ’ शब्द में वैष्णवीय तत्त्व गुप्तरूप में समाया है । कवि का कहना है :
" भक्तिदेवा गुप्त होइअछि य़ुक्ताक्षरे / 
वैष्णव बिहुने केबा जाणिब संसारे ॥"


‘जगत्'-शब्द का अर्थ है 'राधा' और ‘नाथ’-शब्द का अर्थ है ‘कृष्ण' । प्रकृति-रूपिणी राधा एवं पुरुष-रूप कृष्ण, ये दोनों परम तत्त्व 'जगन्नाथ'-शब्द में सन्निवेशित हैं । मत्स्य, कूर्म, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, श्रीराम, बलराम, बुद्ध एवं कल्कि - ये विष्णु के दशावतार श्रीजगन्नाथ में समाविष्ट हैं । कवि उपेन्द्र भञ्ज की लेखनी में जगन्नाथ, विष्णु, कृष्ण एवं राम अभिन्न देवता के रूप में भावित हैं । सर्वदेवमय विग्रह जगन्नाथ हैं संसार के आदिमूल । ओड़िआ साहित्य के आदिकवि सारला दास ने जगन्नाथ को बुद्धावतार के रूप में चित्रित किया है । उनके मत में ब्रह्मा सुभद्रा-स्वरूप पूजित हैं । भक्तकवि बलराम दास ने जगन्नाथ को कृष्ण मानकर अपना लिया है । कवि दीनकृष्ण दास के मत में जगन्नाथ ही दशावतारी परम पुरुष हैं । सुदर्शन सहित चतुर्धा मूर्त्ति शङ्खक्षेत्र पुरी धाम में समाराधित हैं । अष्ट शम्भुरूपी महादेव पुरी क्षेत्र के रक्षक हैं । इस क्षेत्र में चण्डाल के हाथ से भी ब्राह्मण अन्न भोजन करके सौ जन्मों का पाप मिटा देते हैं । इस विषय पर स्कन्द-पुराण में वर्णित है :
'सुधोपमं पचत्यन्नं भुङ्‍क्ते नारायणः प्रभुः । 
तदुच्छिष्टोपभोगो हि सर्वाघ-क्षय-कारकः ॥' (उत्कल खण्ड)

कवि उपेन्द्र भञ्ज ‘कोटिब्रह्माण्ड-सुन्दरी’ काव्य में श्रीजगन्नाथ का विशेष वर्णन किया है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र – ये चार वर्णों के लोगों को धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष रूप चतुर्वर्ग प्रदान करने में जगन्नाथ महाप्रभु निपुण हैं । कवि की उक्ति में :
'से कम्बु-कटक- राजा नाम जगन्नाथ । 
चारि बर्णे च‍उबर्ग देबाकु समर्थ ॥' (को.ब्र. सु. १/१२) 

अचिन्तनीय है श्रीजगन्नाथ की महिमा । उनके पास जाति, धर्म, छोटा, बड़ा आदिका कोई भेदभाव नहीं । भाव ही उनके लिये प्रधान तत्त्व है । वे भक्तवत्सल दीनबन्धु दयासागर हैं, भक्ति से ही प्रीत और प्रसन्न होते हैं । दासिआ बाउरी के हाथ से भक्तिपूत हृदय में अर्पित नारियल स्वीकार करते हैं । पुरी में रथयात्रा के समय यवन भक्त सालबेग की बिनति सुनकर उनके पहुँचने तक रथ में अटल हो बैठकर भक्त की प्रतीक्षा करते हैं । कभी भक्तकवि बलराम दास के बालुका-रथ पर विराजित होते हैं । कभी छुपछुपकर माल्याणी के मुख से कवि-जयदेवकृत गीतगोविन्द की मधुर पङ्‍क्तियाँ सुनते हैं । कभी बन्धु-महान्ति को स्वर्ण थाली में अन्न-व्यञ्जन परोस देते हैं । औपचारिक रूप से स्नानयात्रा के बाद महाप्रभु को अतिस्नान-जनित ज्वर से आरोग्य करने के लिये औषध देकर चिकित्सा की जाती है । ये सब प्रभु के मानवीय आचरण या दिव्य मर्त्त्य लीला हैं । इसलिये श्रीजगन्नाथ मानवायित परम-पुरुष के रूप में भक्त जनों की आन्तरिक भक्ति और सश्रद्ध सेवा स्वीकार करते हैं । श्रीजगन्नाथ की रथयात्रा या घोषयात्रा का महत्त्व सर्वजन-विदित है । ओड़िशा के सर्वत्र पुरपल्लियों में भी इस महोत्सव की परिव्याप्ति रही है । आजकल केवल भारत में ही नहीं , बल्कि विदेशों में जगन्नाथ महाप्रभु की रथयात्रा महासमारोह में अनुष्ठित होती है । आकाशवाणी-दूरदर्शनादि विभिन्न माध्यमों से विशेष प्रसार के कारण श्रीजगन्नाथ का माहात्म्य आज के वैज्ञानिक युग में विश्वव्यापी बन चुका है । ओड़िशा की सांस्कृतिक एवं धार्मिक चेतनाओं का उत्कर्ष-स्वरूप श्रीजगन्नाथ-तत्त्व सारे संसार में जन-मानस को सदा आह्लादित और भक्तिरसाप्लुत करता आ रहा है और करता रहेगा । रथयात्रा के पावन अवसर पर उन भावग्राही महाप्रभु के लिये हमारी वन्दना है : 

'तुलसी-लसित-सीतावरम्, 
चैतन्य-नुत-मुरलीधरम् । 
भैरवं भजे गजाननम्, 
खग-वाहनं ससुदर्शनम् । 
इन्दिरेशं विश्‍व-वेशं बुद्ध-रूपमनिन्दितम्, 
प्रणमामि तं भुवि वन्दितम्, 
जन-हृदय-मन्दिर- नन्दितम्, प्रणमामि तम् ॥' 

'रथ-महोत्सवे जगत्पते ! 
त्वयि मन्दिराद्‍ बहिरागते । 
जन-लोचनं गोविन्द ! ते, 
शुभ- दर्शन-रसं विन्दते । 
नन्दिघोष- स्यन्दन-गतं शङ्ख-घण्टा-नादितम्, 
प्रणमामि तं भुवि वन्दितम्, 
जन-हृदय- मन्दिर- नन्दितम् । 
जगन्नाथं परात्मानं सर्व-तनुषु स्पन्दितम्, 
प्रणमामि तम् ॥' (पुरुषोत्तम-गीतिका)

अन्त में, श्रीजगन्नाथ महाप्रभु के चरणारविन्द में प्रार्थना करते हैं कि उनके पावन नाम के स्मरण से 
परस्पर भ्रातृत्व, मैत्री और श्रद्धा सदैव विकशित रहें एवं सबका जीवन सुख-शान्तिमय हो ।

'मैत्रीं प्रशान्तिं सुखदां चिरन्तनं
तनोतु विश्वे तव नाम-चिन्तनम् ।
आत्मीयता-रूप-रसो महीयतां
प्रभो जगन्नाथ ! कृपा विधीयताम् ॥'

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